रायपुर/दिल्ली। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा भेजे गए 14 संवैधानिक सवालों पर सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने आज ऐतिहासिक फैसला सुनाया। ये सवाल राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों पर कार्रवाई की समय-सीमा तथा उनकी संवैधानिक शक्तियों से जुड़े थे। राष्ट्रपति ने पहले चिंता जताई थी कि कोर्ट ने बिलों पर “निर्धारित समय में निर्णय” लेने की बात कहकर संवैधानिक सीमाओं का उल्लंघन बताया है, जिसके बाद मामला प्रेसिडेंशियल रेफरेंस के रूप में सर्वोच्च अदालत पहुंचा था।
क्या कहा सुप्रीम कोर्ट ने?
10 दिनों की सुनवाई के बाद आए फैसले का प्रभाव देश के संघीय ढांचे, राज्यों के अधिकारों और गवर्नर की भूमिका पर गहरा पड़ेगा। अदालत ने स्पष्ट किया कि:
अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल के पास केवल 3 विकल्प हैं:
बिल को मंजूरी देना
बिल को रोकना
बिल को राष्ट्रपति के लिए सुरक्षित रखना
कोर्ट ने कहा कि पहले प्रावधान (proviso) को किसी भी स्थिति में “चौथा विकल्प” नहीं माना जा सकता।
सबसे महत्वपूर्ण टिप्पणी यह रही कि “राज्यपाल किसी विधेयक को बिना सदन को वापस भेजे अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख सकते।”
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब दो व्याख्याएं संभव हों, तो वही व्याख्या अपनाई जानी चाहिए जो संवैधानिक संस्थाओं के बीच संवाद, तालमेल और सहयोग को मजबूती दे। अदालत ने यह भी कहा कि राष्ट्रपति के लिए कोई बिल सुरक्षित रखना संस्थागत संवाद का हिस्सा है, ना कि टकराव का माध्यम।
फैसले का व्यापक असर
यह फैसला केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों के संतुलन, गवर्नर की भूमिका और विधायी प्रक्रिया में पारदर्शिता सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। अदालत की यह टिप्पणी कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोग “टकराव की जगह संवाद” को महत्व दें, भविष्य की राजनीतिक और संवैधानिक प्रक्रियाओं के लिए महत्वपूर्ण संकेत मानी जा रही है।










